10 April 2011

फैसले की घड़ी (स्तम्भ , दैनिक भास्कर ): लोग कुंठित, सरकार नाकाम और न्यायपालिका चुप



फैसले की घड़ी (स्तम्भ , दैनिक भास्कर ): लोग कुंठित, सरकार नाकाम और न्यायपालिका चुप



जयपुर के पंत कृषि भवन में आत्महत्या करने वाली अधिकारी चंचल चौहान के सुसाइड नोट ने 2007 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाहिर की गई चिंता पर मुहर लगा दी। राजेन्द्र सिंह बनाम प्रेम माई मामले के पैरा 11 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि: ‘मामलों के निपटारे में अत्यधिक देरी से लोग निराश हैं और न्यायपालिका विश्वास खो रही है। संबंधित अधिकारियों से अनुरोध है कि मामले जल्द निपटाने को प्राथमिकता दें ताकि लोगों का विश्वास न्यायपालिका में बना रहे।’

न्याय में देरी, न्याय न मिलने के ही समान है। जब एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र न्याय देने से मना कर देता है, तब लोगों की अपेक्षाएं भय और निराशा में बदलकर विस्फोटक आतंकवाद का रूप धर लेती है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो इसी साल सितंबर के अंत में सुप्रीम कोर्ट में 54,732 मामले लंबित थे। जुलाई 2009 में विभिन्न उच्च न्यायालयों में 40 लाख तथा निचली अदालतों में 2.7 करोड़ मामले लंबित थे।

जस्टिस कृष्णा अय्यर ने बाबू सिंह (1978) मामले के पैरा 24 में लंबित मामलों की संख्या पर टिप्पणी करते हुए कहा कि क्या कोर्ट के लिए यह उचित होगा कि वह व्यक्ति से कहे कि, ‘हमने तुम्हारी अपील दायर कर ली है क्योंकि प्रथमदृष्ट्या मामला जायज है। लेकिन बदकिस्मती से कुछ वर्षो तक हम तुम्हारी अपील नहीं सुन सकते क्योंकि हमारे पास वक्त नहीं है। इसलिए जब तक अपील की सुनवाई नहीं होती, तुम्हें निदरेष होने के बावजूद जेल में ही रहना होगा।’

विधि आयोग ने जुलाई 1987 में अपनी 120वीं रिपोर्ट में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या के लिए ‘न्यायाधीश -जनसंख्या अनुपात’ को जिम्मेदार बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन (2002) मामले के पैरा 25 में कहा था कि मामलों के निपटारे में देरी का मुख्य कारण ‘न्यायाधीश- जनसंख्या अनुपात’ ही है। अगर पर्याप्त संख्या में जज नियुक्त नहीं किए गए तो लोगों को न्याय नहीं मिलेगा। वर्ष 2009 में भारत में यह अनुपात 12.5 न्यायाधीश प्रति दस लाख लोग था जबकि अमेरिका में 1999 में ही यह अनुपात 104 था। वहीं, विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट 1987 में ही इस अनुपात को 10.5 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की जा चुकी थी।

प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संसद की स्थाई समिति ने भी अपनी 85वीं रिपोर्ट (फरवरी 2002) में विधि आयोग का समर्थन किया था। 24 अक्टूबर 2009 में कानून मंत्री वीरप्पा मोईली की ओर से सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन को पेश ‘विजन स्टेटमेंट’ में भी इस बात का उल्लेख है, लेकिन सरकार अब तक कोई ठोस काम नहीं कर पाई।

इसी साल 1 अक्टूबर को जारी आंकड़ों में बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट में जजों के 31 स्वीकृत पदों में से दो खाली हैं। उच्च न्यायालयों में 895 पद स्वीकृत हैं जिनमें से 283 खाली हैं। सवाल उठता है कि जब स्वीकृत पद ही खाली हैं तो न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात कैसे बढ़ाया जाएगा? तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन के मुताबिक निचली अदालतों में 77 हजार जजों की जरूरत है जबकि हैं सिर्फ 12278 ही। क्या हमारी सरकार को इस खराब स्थिति की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि जजों को नियुक्त वही करती है? जजों की संख्या के अलावा न्यायपालिका में जवाबदेही और पारदर्शिता का अभाव भी है। जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा था कि औसत दर्जे के जज ही लंबित मामलों की लंबी फेहरिस्त के कारण हैं। यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि एक न्यायाधीश जो असक्षम है वह न्याय में देरी का कारण है, चाहे वह ईमानदार ही क्यों न हो क्योंकि वह न तो कानून की बारीकियों को समझता है और न ही उचित निर्णय कर पाता है। तारीखें बढ़ती रहती हैं। इन्हीं तारीखों में उलझ गई थी कृषि भवन की महिला अधिकारी की जिंदगी।

नीलाम्बर झा, विधि विशेषज्ञ

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