18 April 2011

फैसले की घड़ी (स्तम्भ , दैनिक भास्कर ):कानून भी चले वक्त के साथ : सुप्रीम कोर्ट

फैसले की घड़ी (स्तम्भ , दैनिक भास्कर ): कानून भी चले वक्त के साथ : सुप्रीम कोर्ट


जजों और वकीलों का नियमित तौर पर डिजिटल सबूतों से वास्ता पड़ता रहता है, खासकर ई-मेल से। इंग्लैंड के वेस्टर्न प्रोविडेंट एसोसिएशन लिमिटेड बनाम नॉर्विच यूनियन हेल्थकेयर लिमिटेड मामले में कहा गया था- ई-मेल सर्वव्यापी हो गया है और सिविल व फौजदारी मामलों में नियमित रूप से सबूतों में लिया जा रहा है जिसमें मानहानि का अभियोग भी शामिल है।



11 सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए आतंकी हमले के मुख्य अभियुक्त खालिद शेख मोहम्मद की गिरफ्तारी सिर्फ इसी कारण संभव हो पाई थी कि सुरक्षा एजेंसियों ने यह ट्रेस कर लिया था कि उसने और अन्य सह-अपराधियों ने विभिन्न मोबाइल फोन में एक ही सिमकार्ड इस्तेमाल किया था। इसी तरह स्कॉट पीटरसन को साल 2004 में अपनी पत्नी और अजन्मे भ्रूण की हत्या में दोषी करार करने के लिए उसकी कार में लगे जीपीएस सिस्टम के आंकड़ों से सबूत जुटाए गए थे।



साल 2006 में सिजिया सैन्निनो ने तीन व्यक्तियों पर बलात्कार का आरोप लगाया था लेकिन मोबाइल कैमरे में उस लड़की की निर्वस्त्र होकर उन लोगों की गोद में नाचने की तस्वीर थी। इसे सबूत मानकर आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया गया, उल्टे वही लड़की दोषी पाई गई। व्हाइट बनाम व्हाइट तलाक के मामले में पति ने कोर्ट से गुहार लगाई थी कि उसकी पत्नी ने उसका ई-मेल गैरकानूनी तरीके से हासिल किया है इसलिए उसे सबूत न माना जाए। लेकिन कोर्ट ने कहा कि चूंकि घर के सभी लोग उस कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर रहे थे, इसलिए सबूत ग्राह्य थे।



डिजिटल सबूतों को कई वर्गो में बांटा जा सकता है। पहला, ऐसे अभिलेख जिन्हें लोगों ने लिखा है, मसलन ई-मेल, वर्ड प्रोसेसिंग फाइल्स तथा इन्स्टेंट मैसेज। साक्ष्यिक तौर पर जरूरी है कि यह दस्तावेज मानवीय कथनों को दर्ज करने का विश्वसनीय अभिलेख हो। दूसरा, कंप्यूटरीकृत अभिलेख में कोई मानवीय दखलंदाजी न हो, उदाहरणार्थ डाटा लॉग्स और एटीएम ट्रांजेक्शन्स। ऐसे अभिलेखों में मुख्य साक्ष्यिक प्रश्न यह है कि जिस कंप्यूटर प्रोग्राम में वह अभिलेख लिखा गया है वह उस तात्विक समय में सही तरीके से काम कर रहा हो। तीसरा, ऐसे अभिलेख जिनमें उपयरुक्त दोनों बिंदुओं का समावेश



डिजिटल सबूतों की प्रामाणिकता को विभिन्न तरीकों से चुनौती दी जा सकती है। प्रथम, यह दावा किया जा सकता है कि जिस समय वह दस्तावेज बनाया गया था और जब उसे कोर्ट के सामने सबूत के तौर पर प्रस्तुत किया गया इस दौरान इसमें संशोधन, परिवर्तन या किसी तरह की हानि तो नहीं पहुंचाई गई है। दूसरा, उस कंप्यूटर प्रोग्राम की विश्वसनीयता पर संदेह है जिससे यह अभिलेख हासिल किया गया। तीसरा, उस दस्तावेज के लेखक की पहचान विवाद में है।



सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन बनाम पीआर रामाकृष्णन् मामले (1983) में कहा था कि अगर बदलते समाज की जरूरतों के मुताबिक कानून नहीं बदलेगा तो समाज की उन्नति प्रभावित होगी। यदि समाज में बदलाव की रफ्तार कानून से तेज हुई तो कानून दरकिनार कर दिया जाएगा, इसलिए कानून समाज के अनुरूप ही चले। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू के मामले (2003) में भी सुप्रीम कोर्ट ने अभिलेख रखने के पारंपरिक तरीके को पुराना हो चुका मान लिया था। डिजिटल सबूतों की ग्राह्यता से संबंधित कानून अब आ चुके हैं। जरूरत है कि वकील, जांच एजेंसियां और जज इसके साथ कदम से कदम मिलाएं।



नीलाम्बर झा, विधि विशेषज्ञ





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11 April 2011

फैसले की घड़ी (स्तम्भ , दैनिक भास्कर ): वह युवती खुद को कैसे बचाती?

फैसले की घड़ी (स्तम्भ , दैनिक भास्कर ): वह युवती खुद को कैसे बचाती
हाल ही में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने मेक्डॉनल्ड मामले में कहा- किसी भी राज्य या स्थानीय सरकार द्वारा बनाया गया कोई कानून जो अमेरिकी नागरिकों के हथियार रखने के मौलिक अधिकार पर रोक लगाता हो, असंवैधानिक होगा। कोर्ट ने हेलर मामले में आए फैसले के हवाले से कहा- निजी प्रतिरक्षा के लिए हथियार रखने का अधिकार, अमेरिकी संविधान के दूसरे संशोधन से संरक्षित हो चुका है। इसमें ‘निजी प्रतिरक्षा’ ही केंद्र बिंदु है। यहां निजी प्रतिरक्षा के लिए हथियार रखने के अधिकार का अर्थ यह नहीं है कि किसी भी तरीके या प्रयोजन के लिए इसे रखा जा सके। स्कूल, सरकारी संस्थाओं, सार्वजनिक स्थानों और अन्य संवेदनशील जगहों पर हथियार नहीं ले जाया जा सकता। आपराधिक चरित्र वाले और मानसिक तौर पर बीमार लोग भी हथियार नहीं रख सकते। कोर्ट ने दूसरे संशोधन को 14वें संशोधन में अपनाई गई सम्यक प्रक्रिया खंड (देहिक स्वतंत्रता का अधिकार) के परिप्रेक्ष्य में समझने की पेशकश की है। 


हमारी संविधान सभा में भी 1-2 दिसंबर, 1948 को ‘हथियार रखने के अधिकार’ के संदर्भ में चर्चा हुई थी। श्री एचवी कामथ ने प्रारूप संविधान के अनुच्छेद 13 में संशोधन कर खंड एच (हथियार रखने का अधिकार) और खंड 7 (उचित र्निबधन) जोड़े जाने की सिफारिश की थी। (सीएडी, जिल्द-सात, पृष्ठ 718-721)


डॉ. अंबेडकर ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा- अगर सभी नागरिकों को हथियार रखने का अधिकार मिल गया तो देश में मौजूद आपराधिक समुदाय व आदतन अपराधी भी हथियार रखने का दावा करेंगे। इसमें परंतुक जोड़कर यह भी नहीं कहा जा सकता कि फलां वर्ग को यह अधिकार नहीं मिलेगा। (पृष्ठ 780-81)


कामथ ने संविधान सभा का ध्यान इस ओर भी खींचा कि 1928 की नेहरू रिपोर्ट और कांग्रेस के कराची अधिवेशन (1931) में इसे मौलिक अधिकार के तौर पर शामिल किए जाने की पेशकश की जा चुकी है, लेकिन हमारे कानून निर्माता आज तक इस पर अधिक विचार नहीं सके हैं।


हाल ही दिल्ली के धौला कुआं इलाके में कॉल सेंटर में काम करने वाली युवती से बलात्कार की दिल दहला देने वाली घटना हुई। प्रश्न उठता है कि जब उस लड़की को कार में अगवा किया जा रहा था तो वह अलसुबह के उस वीराने में शोर मचाने के सिवा खुद को बचाने के लिए क्या कर सकती थी? हमने भारतीय दंड संहिता में ‘निजी प्रतिरक्षा के अधिकार’ को धारा 96 से 106 में संहिताबद्ध तो कर दिया, मगर हथियार से लैस अपराधी का प्रतिकार करने का तरीका नहीं सुझाया। 


डॉ. अंबेडकर के तर्क को अगर ध्यान से समझा जाए तो उनकी चिंता हथियारों के आदतन अपराधियों के हाथों में जाने को लेकर थी। सब जानते हैं कि हमारी सुरक्षा एजेंसियां सालभर में हजारों अवैध हथियार बरामद करती हैं? कई इलाके तो अवैध देसी कट्टे और बंदूकें बनाने के लिए कुख्यात हैं। ये हथियार आम लोगों के खिलाफ ही इस्तेमाल होते हैं तो निहत्था व्यक्ति अपनी सुरक्षा कैसे करे? संविधान के अनुच्छेद 21 के मुताबिक दैहिक स्वतंत्रता हमारा मौलिक अधिकार है, लेकिन रक्षा कैसे होगी? इसका जवाब विधि निर्माता आज तक नहीं दे सके हैं।

आज देश में मौजूद जनप्रतिनिधि और वीआईपी की सुरक्षा के लिए एजेंसियां चौकस रहती हैं। नेताओं को श्रेणीवार सुरक्षा दस्ते मिले हैं। किसी को जेड, किसी को वाई। पर आम आदमी के पास सुरक्षा के लिए कुछ नहीं है। क्या विधि निर्माता, जनतंत्र के ‘जन’ पर विश्वास नहीं करते। लोकतंत्र में सरकार आम नागरिकों से क्यों डरती है, क्यों उन्हें अपनी ही जनता पर विश्वास नहीं है। क्या उनकी लोकप्रियता संदेह के दायरे में नहीं है। अब समय आ गया है जब विधायिका ‘निजी प्रतिरक्षा के लिए हथियार रखने के अधिकार’ को अनुच्छेद 19 का भाग बनाए।


नीलाम्बर झा, विधि विशेषज्ञ
neelamber.jha@gmail.com

10 April 2011

फैसले की घड़ी (स्तम्भ , दैनिक भास्कर ): लोग कुंठित, सरकार नाकाम और न्यायपालिका चुप



फैसले की घड़ी (स्तम्भ , दैनिक भास्कर ): लोग कुंठित, सरकार नाकाम और न्यायपालिका चुप



जयपुर के पंत कृषि भवन में आत्महत्या करने वाली अधिकारी चंचल चौहान के सुसाइड नोट ने 2007 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाहिर की गई चिंता पर मुहर लगा दी। राजेन्द्र सिंह बनाम प्रेम माई मामले के पैरा 11 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि: ‘मामलों के निपटारे में अत्यधिक देरी से लोग निराश हैं और न्यायपालिका विश्वास खो रही है। संबंधित अधिकारियों से अनुरोध है कि मामले जल्द निपटाने को प्राथमिकता दें ताकि लोगों का विश्वास न्यायपालिका में बना रहे।’

न्याय में देरी, न्याय न मिलने के ही समान है। जब एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र न्याय देने से मना कर देता है, तब लोगों की अपेक्षाएं भय और निराशा में बदलकर विस्फोटक आतंकवाद का रूप धर लेती है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो इसी साल सितंबर के अंत में सुप्रीम कोर्ट में 54,732 मामले लंबित थे। जुलाई 2009 में विभिन्न उच्च न्यायालयों में 40 लाख तथा निचली अदालतों में 2.7 करोड़ मामले लंबित थे।

जस्टिस कृष्णा अय्यर ने बाबू सिंह (1978) मामले के पैरा 24 में लंबित मामलों की संख्या पर टिप्पणी करते हुए कहा कि क्या कोर्ट के लिए यह उचित होगा कि वह व्यक्ति से कहे कि, ‘हमने तुम्हारी अपील दायर कर ली है क्योंकि प्रथमदृष्ट्या मामला जायज है। लेकिन बदकिस्मती से कुछ वर्षो तक हम तुम्हारी अपील नहीं सुन सकते क्योंकि हमारे पास वक्त नहीं है। इसलिए जब तक अपील की सुनवाई नहीं होती, तुम्हें निदरेष होने के बावजूद जेल में ही रहना होगा।’

विधि आयोग ने जुलाई 1987 में अपनी 120वीं रिपोर्ट में लंबित मामलों की बढ़ती संख्या के लिए ‘न्यायाधीश -जनसंख्या अनुपात’ को जिम्मेदार बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन (2002) मामले के पैरा 25 में कहा था कि मामलों के निपटारे में देरी का मुख्य कारण ‘न्यायाधीश- जनसंख्या अनुपात’ ही है। अगर पर्याप्त संख्या में जज नियुक्त नहीं किए गए तो लोगों को न्याय नहीं मिलेगा। वर्ष 2009 में भारत में यह अनुपात 12.5 न्यायाधीश प्रति दस लाख लोग था जबकि अमेरिका में 1999 में ही यह अनुपात 104 था। वहीं, विधि आयोग की 120वीं रिपोर्ट 1987 में ही इस अनुपात को 10.5 से बढ़ाकर 50 करने की सिफारिश की जा चुकी थी।

प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संसद की स्थाई समिति ने भी अपनी 85वीं रिपोर्ट (फरवरी 2002) में विधि आयोग का समर्थन किया था। 24 अक्टूबर 2009 में कानून मंत्री वीरप्पा मोईली की ओर से सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन को पेश ‘विजन स्टेटमेंट’ में भी इस बात का उल्लेख है, लेकिन सरकार अब तक कोई ठोस काम नहीं कर पाई।

इसी साल 1 अक्टूबर को जारी आंकड़ों में बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट में जजों के 31 स्वीकृत पदों में से दो खाली हैं। उच्च न्यायालयों में 895 पद स्वीकृत हैं जिनमें से 283 खाली हैं। सवाल उठता है कि जब स्वीकृत पद ही खाली हैं तो न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात कैसे बढ़ाया जाएगा? तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन के मुताबिक निचली अदालतों में 77 हजार जजों की जरूरत है जबकि हैं सिर्फ 12278 ही। क्या हमारी सरकार को इस खराब स्थिति की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए, क्योंकि जजों को नियुक्त वही करती है? जजों की संख्या के अलावा न्यायपालिका में जवाबदेही और पारदर्शिता का अभाव भी है। जस्टिस कृष्णा अय्यर ने कहा था कि औसत दर्जे के जज ही लंबित मामलों की लंबी फेहरिस्त के कारण हैं। यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि एक न्यायाधीश जो असक्षम है वह न्याय में देरी का कारण है, चाहे वह ईमानदार ही क्यों न हो क्योंकि वह न तो कानून की बारीकियों को समझता है और न ही उचित निर्णय कर पाता है। तारीखें बढ़ती रहती हैं। इन्हीं तारीखों में उलझ गई थी कृषि भवन की महिला अधिकारी की जिंदगी।

नीलाम्बर झा, विधि विशेषज्ञ